हरि सर्वोत्तम । वायु जीवोत्तम । श्री गुरुभ्यो नमः ।
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श्री जगन्नाथदासार्य विरचित श्री हरिकथामृतसार
१४. पितृगण (जीवनप्रक्रिया) सन्धि
हरिक-थामृत — सार-गुरुगळ ।
करुण-दिंदा — पनितु-पेळुवॆ ।
परम-भगवद् — भक्त-रिदना — दरदि-केळुवु-दु ॥ प ॥
कृतिर-मण प्र — द्युम्न वसुदे- ।
वतॆग-ळाहं — कार-त्रयदॊळु ।
चतुर-विंशति — रूप-दिंदलि — भोज्य-नॆनिसुव-नु ॥ हुतव-हाक्षां — तर्ग-त जया- ।
पतियु- ताने — मूर-धिक त्रिं- ।
शति सु-रूपदि — भोक्तृ- ऎनिसुव — भोक्तृ-गळॊळि-द्दु ॥ १४-१ ॥
आर-धिक मू — वत्तु- रूपदि ।
वारि-जाप्तनॊ — ळिरुति-हनु मा- ।
या र-मण श्री — वासु-देवनु — काल- नामद-लि ॥ मूरु-विध पितृ — गळॊळु- वसु त्रिपु- ।
रारि- आदि — त्यगनि-रुद्धनु ।
तोरि-कॊळ्ळदॆ — कर्तृ- कर्म — क्रियनॆ-निसिकॊं-ब ॥ १४-२ ॥
स्ववश- नारा — यणनु- ता ष- ।
ण्णवति- नामदि — करॆसु-तलि वसु- ।
शिव दि-वाकर — कर्तृ- कर्म — क्रियॆग-ळॊळगि-द्दु ॥ नॆवन-विल्लदॆ — नित्य-दलि त- ।
न्नवरु- माडुव — सेवॆ- कैकॊं- ।
डवर- पितृगळि — गीव-नंता — नंत- सुखगळ-नु ॥ १४-३ ॥
तंतु- पटदं — ददलि- लक्ष्मी ।
कांत- पंचा — त्मकनॆ-निसि वसु ।
कंतु-हर रवि — कर्तृ-गळॊळि — द्दनव-रत त-न्न ॥ चिंति-सुव सं — तरनु- गुरु म- ।
ध्वांत-रात्मक — संत-यिसुवनु ।
संत-तखिला — र्थगळ- पालिसि — इह प-रंगळ-लि ॥ १४-४ ॥
तंदॆ- ताय्गळ — प्रीति-गोसुग ।
निंद्य- कर्मव — तॊरॆदु- विहित ग- ।
ळॊंदु- मीरदॆ — सांग- कर्मग — ळाच-रिसुवव-रु ॥ वंद-नियरा — गिळॆयॊ-ळगॆ दै- ।
नंदि-नदि दै — शिक द-हिक सुख- ।
दिंद- बाळ्वरु — बहु दि-वसदलि — कीर्ति-युतरा-गि ॥ १४-५ ॥
अंशि- अंशां — तर्ग-त त्रय ।
हंस- वाहन — मुख्य- दिविजर ।
संश-यदि तिळि — दंत-रात्मक — श्री ज-नार्दन-न ॥ संस्म-रणॆ पू — र्वकदि- षडधिक- ।
त्रिंश-ति त्रय — रूप-वरितु वि- ।
पांस-गन पू — जिसुव-रवरॆ कृ — तार्थ-रॆनिसुव-रु ॥ १४-६ ॥
मूरु-वरॆ सा — विरद- मेलरॆ- ।
नूर-यिदु रू — पदि ज-नार्दन ।
सूरि-गळु मा — डुव स-मारा — धनॆगॆ- विघ्नग-ळु ॥ बार-दंतॆ ब — हु प्र-कार ख- ।
रारि- कापा — डुवनु- सर्व श- ।
रीर-गळॊळि — द्दवर-वर पॆस — रिंद- करॆसुत-लि ॥ १४-७ ॥
जय ज-य जया — कांत- दत्ता- ।
त्रय क-पिल महि — दास- भक्त- ।
प्रिय पु-रातन — पुरुष- पूर्णा — नंद- ज्ञान घ-न ॥ हयव-दन हरि — हंस- लोक- ।
त्रय वि-लक्षण — निखिळ- जगदा- ।
श्रय नि-रामय — दयदि- संतै — सॆंदु- प्रार्थिपु-दु ॥ १४-८ ॥
षण्ण-वति ऎं — बक्ष-रेड्यनु ।
षण्ण-वति ना — मदलि- करॆसुत ।
तन्न-वरु स — द्भक्ति- पूर्वक — दिंद- माडुति-ह ॥
पुण्य- कर्मव — स्वीक-रिसि का- ।
रुण्य- सागर — सलहु-वनु ब्र- ।
ह्मण्य-देव भ — वाब्धि- पोत ब — हु प्र-कारद-लि ॥ १४-९ ॥
देह-गळ कॊडु — ववनु- अवरव- ।
रहर-गळ कॊड — दिहनॆ- सुमनस- ।
महित- मंगळ — चरित- सद्गुण — भरित-ननवर-त ॥
अहिक- पार — त्रिक सु-खप्रद ।
वहिसि- बॆन्नलि — बॆट्ट-वमृतव ।
द्रुहिण- मॊदला — दवरि-गुणिसिद — मुरिद-नहितर-नु ॥ १४-१० ॥
द्रुहिण- मॊदला — दमर-रिगॆ स- ।
न्महित- माया — रमण- ताने ।
स्वहनॆ-निसि सं — तृप्ति- बडिसुव — सर्व- कालद-लि ॥
प्रहित- संकरु — षणनु- पित्रुगळि- ।
गहर-नॆनिप स्व — धाख्य- रूपदि ।
महिज- फल तृण — पॆसरि-नलि प्र — द्युम्न- अनिरु-द्ध ॥ १४-११ ॥
अन्न-नॆनिसुव — नृपशु-गळिगॆ हि- ।
रण्य- गर्भां — डदॊळु- संतत ।
तन्न-नी परि — यिंदु-पासनॆ — गैव- भक्तर-नु ॥
बन्न- बडिसदॆ — भव स-मुद्र म- ।
होन्न-तिय दा — टिसि च-तुर्विध ।
अन्न-मयना — त्म प्र-दर्शन — सुखव-नीव ह-रि ॥ १४-१२ ॥
मन व-चन का — यगळ- दॆसॆयिं- ।
दनुदि-नदि बिड — दाच-रिसुति- ।
प्पनुचि-तोचित — कर्म-गळ स — द्भक्ति- पूर्वक-दि ॥ अनिल-देवनॊ — ळिप्प- नारा- ।
यणगि-दन्नवु — ऎंदु- कृष्णा- ।
र्पणवॆ-नुत कॊडॆ — स्वीक-रिसि सं — तैप- करुणा-ळु ॥ १४-१३ ॥
एळु- विध अ — न्न प्र-करणव ।
केळि- कोविद — रास्य-दिंदलि ।
आल-सव मा — डदलॆ- अनिरु — द्धादि- रूपग-ळ ॥
काल- कालदि — नॆनॆदु- पूजिसु ।
स्थूल-मतिगळि — गिदनु- पेळदॆ ।
श्रील-कुमिव — ल्लभनॆ- अन्ना — दन्न- अन्नद-नु ॥ १४-१४ ॥
ऎंद-रितु स — प्तान्न-गळ दै- ।
नंदि-नदि मरॆ — यदॆ स-दा गो- ।
विंद-गर्पिसु — निर्भ-यदि मह — यज्ञ-विदुयॆं-दु ॥ इंदि-रेशनु — स्वीक-रिसि दय- ।
दिंद- बेडिसि — कॊळदॆ- तवकदि ।
तंदु- कॊडुवनु — परम- मंगळ — तन्न- दासरि-गॆ ॥ १४-१५ ॥
सूजि- करदलि — पिडिदु- समरव ।
ना ज-यिसुवॆनु — ऎंब- नरनं- ।
ती ज-गत्तिनॊ — ळुळ्ळ- अज्ञा — निगळु- नित्यद-लि ॥
श्रीज-गत्पति — चरण-युगळ स- ।
रोज- भक्ति — ज्ञान- पूर्वक ।
पूजि-सदॆ ध — र्मार्थ- कामव — बयसि- बळलुव-रु ॥ १४-१६ ॥
शकट- भंजन — सकल- जीवर ।
निकट-गनु ता — नागि- लोककॆ ।
प्रकट-नागदॆ — सकल- कर्मव — माडि- माडिसु-त ॥ अकुटि-लात्मक — भकुत- जनरिगॆ ।
सुखद-नॆनिसुव — सर्व-कालदि ।
अकट-कट ई — तन म-हा महि — मॆगळि-गेनॆं-बॆ ॥ १४-१७ ॥
श्री ल-कुमिव — ल्लभनु- वैकुं- ।
ठाल-यदि प्रण — व प्र-कृति की- ।
लाल- जासन — मुख्य- चेतन — रॊळगॆ- नॆलॆसि-द्दु ॥
मूल- कारण — नंश- नामदि ।
लीलॆ-गैवुत — तोरि-कॊळ्ळदॆ ।
पालि-नॊळु घृत — विद्द- तॆरदं — तिप्प- त्रिस्थळ-दि ॥ १४-१८ ॥
मूरु- युगदलि — मूल- रूपनु ।
सूरु-गळ सं — तैसि- दितिय कु- ।
मार-कर सं — हरिसि- धर्मव — नुळुह-बेकॆं-दु ॥ कारु-णिक भू — मियॊळु- निजपरि- ।
वार- सहितव — तरिसि- बहुविध ।
तोरि-दनु नर — वत्प्र-वृत्तिय — सकल- चेतन-कॆ ॥ १४-१९ ॥
कार-णाह्वय — प्रकृति-यॊळगि- ।
द्दार-धिक हदि — नॆंटु- तत्त्वव ।
ता र-चिसि त — द्रूप- तन्ना — मंग-ळनॆ धरि-सि ॥ नीर-ज भवां — डवनु- निर्मिसि ।
कारु-णिक का — र्याख्य- रूपदि ।
तोरु-वनु सह — जाहि-ताचल — गळलि- प्रतिदिन-दि ॥ १४-२० ॥
जीव-रंत — र्यामि- अंशि क- ।
ळेव-रगळॊळ — गिंद्रि-यगळलि ।
ता वि-हारव — गैवु-तनुदिन — अंश- नामद-लि ॥
ई वि-षयगळ — नुंडु- सुखमय ।
ईव- सुख सं — सार- दुःखव ।
देव- मानव — दान-वरिगवि — रत सु-धाम स-ख ॥ १४-२१ ॥
देश- देशव — सुत्ति- देहा- ।
यास-गॊळिसदॆ — काम्य- कर्म दु- ।
रासॆ-गॊळगा — गदलॆ- ब्रह्मा — द्यखिल- चेतन-रु ॥
भू स-लिल पा — वक स-मीरा- ।
काश- मॊदला — दखिल-तत्त्व प- ।
रेश-गिवधि — ष्ठान-वॆंदरि — दर्चि-सनवर-त ॥ १४-२२ ॥
ऎरडु- विधदलि — लोक-दॊळु जी- ।
वरुग-ळिप्परु — संत-त क्षरा- ।
क्षर वि-लिंग स — लिंग- सृज्या — सृज्य- भेदद-लि ॥ करॆसु-वुदु जड — प्रकृति- प्रणवा- ।
क्षर म-हादणु — काल- नामदि ।
हरि स-हित भे — दगळ- पंचक — स्मरिसु- सर्व-त्र ॥ १४-२३ ॥
जीव- जीवर — भेद- जडजड- ।
जीव- जडगळ — भेद- परमनु ।
जीव- जड सुवि — लक्ष-णनु ऎं — दरिदु- नित्यद-लि ॥
ई वि-रिंचां — डदॊळु- ऎल्ला ।
ठावि-नलि तिळि — दैदु- भेद क- ।
ळेव-रदॊळरि — तच्यु-तन पद — वैदु- शीघ्रद-लि ॥ १४-२४ ॥
आदि-यल्लि क्ष — रा क्ष-राख्य ।
द्वेध- अक्षर — दॊळु र-मा मधु- ।
सूद-नरु क्षर — गळॊळु- प्रकृति — प्रणव- कालग-ळु ॥ वेध- मुख्य तृ — णांत- जीवर ।
भेद-गळनरि — ती र-हस्यव ।
बोधि-सदॆ मं — दरिगॆ- सर्व — त्रदलि- चिंतिपु-दु ॥ १४-२५ ॥
दीप-दिं दी — पगळु- पॊरम- ।
ट्टाप-णालय — गत ति-मिरगळ ।
ता प-रिहरव — गैसि- तद्ग प — दार्थ- तोर्पं-तॆ ॥
सौप-रणि वर — वहन- ता बहु- ।
रूप- नामदि — ऎल्ल- कडॆयलि ।
व्यापि-सिद्दु य — थेष्ट- महिमॆय — तोर्प- तिळिसद-लॆ ॥ १४-२६ ॥
नळिन- मित्रगॆ — इंद्र-धनु प्रति- ।
फलिसु-वंतॆ ज — गत्र-यवु कं- ।
गॊळिप-दनुपा — धियलि- प्रतिबिं — बाह्व-यदि हरि-गॆ ॥
तिळियॆ- त्रिककुद् — धाम-नति मं- ।
गळ सु-रूपव — सर्व- ठाविलि ।
पॊळॆव- हृदयकॆ — प्रति दि-वस प्र — ह्लाद- पोषक-नु ॥ १४-२७ ॥
रस वि-षेश दॊ — ळति वि-मल सित- ।
वसन- तोयिसि — अग्नि-यॊळगिडॆ ।
पसरि-सुवुदु प्र — काश- नसुगुं — ददलॆ- सर्व-त्र ॥ त्रिशिर-दूषण — वैरि- भक्ति सु- ।
रसदि- तोय्द म — हात्म-रन बा- ।
धिसवु- भवदॊळ — गिद्द-रॆयु सरि — दुरित- राशिग-ळु ॥ १४-२८ ॥
वारि-निधियॊळ — गखिल- नदिगळु ।
बेरॆ- बेरॆ नि — रंत-रदलि वि- ।
हार- गैय्युत — परम- मोदद — लिप्प- तॆरदं-तॆ ॥ मूरु- गुणगळ — मानि- ऎनिसुव ।
श्रीर-मा रू — पगळु- हरियलि ।
तोरु-तिप्पवु — सर्व- कालदि — समर-हितवॆनि-सि ॥ १४-२९ ॥
कोक-नद सख — नुदय- घूका- ।
लोक-नकॆ सॊग — सदिरॆ- भास्कर ।
ता क-ळंकनॆ — ई कृ-तीपति — जगद- नाथनि-रॆ ॥ स्वीक-रिसि सुख — बडल-रियदवि- ।
वेकि-गळु निं — दिसिद-रेनहु- ।
दी क-वित्वव — केळि- सुख बड — दिहरॆ- कोविद-रु ॥ १४-३० ॥
चेत-ना चे — तनग-ळलि गुरु- ।
मात-रिश्वां — तर्ग-त जग- ।
न्नाथ- विठल नि — रंत-रदि व्या — पिसि ति-ळिसिकॊळ-दॆ ॥ कात-रव पु — ट्टिसि वि-षयदलि ।
यातु- धानर — मोहि-सुव नि- ।
र्भीत- नित्या — नंद-मय नि — र्दोष- निरव-द्य ॥ १४-३१ ।
॥ इति श्री पितृगण (जीवनप्रक्रिया) सन्धि संपूर्णं ॥ ॥ श्री कृष्णार्पणमस्तु ॥
॥ श्रीः ॥
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॥ भारतीरमणमुख्यप्राणान्तर्गत श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥