हरि सर्वोत्तम । वायु जीवोत्तम । श्री गुरुभ्यो नमः ।
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श्री जगन्नाथदासार्य विरचित श्री हरिकथाम्रुतसर
१७. स्वगतस्वातंत्र्य सन्धि
हरिक-थामृत — सार-गुरुगळ ।
करुण-दिंदा — पनितु-पेळुवॆ ।
परम-भगवद् — भक्त-रिदना — दरदि-केळुवु-दु ॥ प ॥
स्वगत- स्वातं — त्रिय गु-णव हरि ।
तॆगॆदु- ब्रह्मा — द्यरिगॆ- कॊट्टदु ।
भृगु मु-निप पे — ळिदनु- इंद्र — द्युम्न- क्षितिपनि-गॆ ॥
परम- विष्णु स्व — तंत्र- माया ।
तरुणि- वक्ष — स्थळ- निवासि ।
सरसि-जोद्भव — प्राण-रीर्वरु — सचिव-रॆनिसुव-रु ॥
सरुव- कर्मग — ळल्लि- तत्प्रिय ।
रुरग- भूषण — हंकृ-ति त्रय ।
करॆसु-वमरें — द्रार्क- मुखरिं — द्रियप-रॆनिसुव-रु ॥ १७-१ ॥
ई दि-वौकस — रंतॆ- कलिमॊद ।
लाद- दैत्यरु — सर्व- देहदि ।
तोद-करु ता — वागि- व्यापा — रगळ- माडुव-रु ॥
वेध- नंददि — कलिय-हंका ॥
राधि-पाधम — मधुकु- कैटभ ।
क्रोधि- शंबर — मुखरु- मनसिगॆ — स्वामि-यॆनिसुव-रु ॥ १७-२ ॥
देव-तॆगळो — पादि- नित्यदि ।
एव-मादी — नाम-दिंदलि ।
याव-दिंद्रिय — गळलि- व्यापा — रगळ- माडुव-रु ॥ सेव-कर से — वानु-गुण फल ।
वीव- नृपनं — ददलि- तन्न स्व- ।
भाव- स्वातं — त्रिय वि-भागव — माडि-कॊट्ट ह-रि ॥ १७-३ ॥
अगणि-त स्वा — तंत्रि-यदि ना- ।
ल्बगॆ वि-भागव — माडि- ऒंदनु ।
तॆगॆदु- दश विध — गैसि- पादरॆ — पंच- प्राणन-लि ॥
मॊग च-तुष्टय — नॊळु स-पादै- ।
दु गुण-विरिसिद — मत्तॆ- दशविध ।
युगळ- गुणवनु — माडि- ऎरडु स — दाशि-वनॊळि-ट्ट ॥ १७-४ ॥
पाक-शासन — काम-रॊळु सा- ।
र्धैक-विट्ट द — शेंद्रि-यर सुदि- ।
वौक-साद्यरॊ — ळॊंदु- याव — ज्जीव-रॊळगॊं-दु ॥ नाल्कु-वरॆ क — ल्यादि- दैत्या- ।
नीक- कित्तनु — ऎरडु- त्रिविध वि- ।
वेक- गैसिं — दिरॆगॆ- ऒंदॆर — डात्म- तन्नॊळ-गॆ ॥ १७-५ ॥
ई वि-धदि स्वा — तंत्रि-यत्वव ।
देव- मानव — दान-वरॊळु र- ।
मा वि-नोदि वि — भाग- माडि — ट्टल्लॆ- रमिसुव-नु ॥ मूव-रॊळगि — द्दवर- कर्मव ।
ता वि-कारव — गैस-दलॆ क- ।
ल्पाव-सानकॆ — कॊडुव-नाया — सवर-वर गति-य ॥ १७-६ ॥
आल-यगळॊळ — गिप्प- दीप- ।
ज्वालॆ- वर्तिग — ळनुस-रिसि जन- ।
रालि-गॊप्पुव — तॆरदि- हरि ता — तोर्प- सर्व-त्र ॥
काल- कालदि — श्रीध-रा दु- ।
र्गा ल-लनॆयर — कूडि- सुखमय ।
लीलॆ-गैयलु — त्रिगुण- कार्यग — ळहवु- जीवरि-गॆ ॥ १७-७ ॥
इंद्रि-यगळिं — माळ्प- कर्म- ।
द्वंद्व-गळ तन — गर्पि-सलु गो- ।
विंद- पुण्यव — कॊंडु- पापव — भस्म-वनॆ मा-ळ्प ॥ इंदि-रेशनु — भक्त- जनरनु ।
निंदि-सुवरॊळ — गिप्प- पुण्यव ।
तंदु- तन्नव — गीव- पापग — ळवरि-गुणिसुव-नु ॥ १७-८ ॥
हॊत्तु- हॊत्तिगॆ — पाप- कर्म प्र- ।
वर्त-कर निं — दिसदॆ- तनगिं- ।
दुत्त-मर गुण — कर्म-गळ कॊं — डाड-दलॆ इ-प्प ॥ मर्त्य-रिगॆ गो — ब्राह्म-ण स्त्री- ।
हत्य- मॊदला — दखिळ- दोषग- ।
ळित्त-पनु सं — देह- बडॆ स — ल्लखिळ- शास्त्र म-त ॥ १७-९ ॥
तन्न- स्वातं — त्रिय गु-णगळ हि- ।
रण्य- गर्भा — द्यरिगॆ- कलिमुख- ।
दान-वर सं — ततिगॆ- अवरधि — कार-वनुसरि-सि ॥ पुण्य- पापग — ळीव- बहु का- ।
रुण्य- सागर — नल्प-शक्तिग- ।
ळुण्ण-लरियदॆ — इरलु- उणगलि — सिदनु- सर्वरि-गॆ ॥ १७-१० ॥
सत्य- विक्रम — पुण्य- पाप स- ।
मस्त-रिगॆ कॊड — लोसु-गदि ना- ।
ल्वत्तु- भागव — माडि- लेशां — शवनु- जनकी-व ॥ अत्य-लुप पर — माणु-विगॆ सा- ।
मर्थ्य-वनु ता — कॊट्टु- स्थूल प- ।
दार्थ-गळनुं — डुणिप- सर्वद — सर्व- जीवरि-गॆ ॥ १७-११ ॥
तिमिर- तरणिग — ळेक- देशदि ।
समनि-सिप्पवॆ — ऎंदि-गादरु ।
भ्रमण- चळि बिसि — लंजि-कॆगळुं — टेनॊ- पर्वत-कॆ ॥ अमित-जीवरॊ — ळिद्दु- लक्ष्मी- ।
रमण- व्यापा — रगळ- माडुव ।
कमल-पत्र स — रोव-रगळॊळ — गिप्प- तॆरदं-तॆ ॥ १७-१२ ॥
अंबु-जोद्भव — मुख्य-सुर कलि- ।
शंब-रादि स — मस्त- दैत्य क- ।
दंब-कनुदिन — पुण्य- पाप वि — भाग-वनु मा-डि ॥ अंबु-धिय जल — वनु म-हद्घट- ।
दिंब-रितु तुं — बुव तॆ-रदि प्रति-
बिंब-रॊळु ता — निद्दु- योग्यतॆ — यंतॆ- फलवी-व ॥ १७-१३ ॥
इनितु- विष्णु र — हस्य-दॊळु भृगु- ।
मुनिप- इंद्र — द्युम्न-गरुपिदु-
दनु बु-धरु के — ळुवुदु- नित्यदि — मत्स-रव बि-ट्टु ॥ अनुचि-तोक्तिग — ळिद्द-रॆयु सरि ।
गणनॆ- माडदि — रॆंदु- विद्व- ।
ज्जनकॆ- विज्ञा — पनव- माडुवॆ — विनय- पूर्वक-दि ॥ १७-१४ ॥
वीत-भय वि — श्वेश- विधिपित ।
मातु-ळांतक — मध्व-वल्लभ ।
भूत-भावन — नंत- भास्कर — तेज- महरा-ज ॥ गौत-मन मड — दियनु- काय्दा- ।
नाथ- रक्षक — गुरुत-म जग- ।
न्नाथ-विठ्ठल — तन्न- नंबिद — भकुत-रनु पॊरॆ-व ॥ १७-१५ ॥
॥ इति श्री स्वगतसातंत्र्य सन्धि संपूर्णं ॥ ॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
॥ श्रीः ॥
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॥ भारतीरमणमुख्यप्राणान्तर्गत श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥